मंदिर का निर्माण और इतिहास – Taranga Tirth History

राजा कुमारपाल ने जैन धर्म स्वीकार किया था और सन् 1159 ईस्वी (संवत 1216) में श्री अजितनाथ भगवान के मंदिर का निर्माण शुरू हुआ। यह मंदिर संभवतः संवत 1216 से 1230 के बीच बनकर तैयार हुआ। 

तारंगा तीर्थ का उल्लेख कई प्राचीन शिलालेखों और ग्रंथों में मिलता है। संवत 1285 (1229 ईस्वी) में मंत्रीश्री वस्तुपाल द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियाँ और खत्तक आज भी इतिहास का प्रमाण हैं। जिनकी प्रतिष्ठा उनके कुलगुरु नागेंद्रगच्छिय विजयसेन सूरी ने करवाई थी।

History में माउंट आबू पर लूणवासही के शिलालेख से ज्ञात होता है कि वरहुडिया परिवार ने भी यहाँ एक गवाक्ष (खत्तक) बनवाया था। संवत 1304 और 1305/ईसवी सन 1248 और 1249 में राजगच्छीय वादिन्द्र धर्मघोषसूरी की परंपरा के भुवनचंद्रसूरी ने यहां अजितनाथ की दो प्रतिमाएं प्रतिष्ठित कराईं। बेशक, आज केवल लेख बचे हैं, मूल बिम्बो नष्ट हो गए हैं।

पंद्रहवी शताब्दी के मध्य भाग में रचित रत्नमंडनगणि कृत एवं सुकृतसागर ग्रंथ की टिप्पणी के आधार पर प्राप्त जानकारी के अनुसार मालवमंत्री पृथ्वीधर (पेथड शा ) के पुत्र जांजण शाह ने तपागच्छीय धर्मघोष के साथ इसवी सन १२६४ में संघ सहित, तारंगा की यात्रा पर आये थे.  इस प्रकार 13वीं शताब्दी के अंत भाग में खतरगच्छीय तृतीय जिनचंद्रसूरी भी संघ सहित वन्दना करने आये हुए थे. इसप्रकार १३वी शताब्दी तक में  तीर्थस्थल के रूप में प्रसिद्ध हो गया था।

13वीं शताब्दी के अंत तक तारंगा तीर्थ एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थल बन चुका था। 

 

Taranga Tirth History: तारंगा तीर्थ का महत्व

14वीं शताब्दी में, मुस्लिम आक्रमणों के दौरान गुजरात के कई मंदिरों को नुकसान पहुंचा, जिनमें तारंगा का यह चैत्य भी शामिल था। 15वीं शताब्दी में तपागच्छ के मुनिसुंदरसूरी और सोमसौभाग्य काव्य में उल्लेख मिलता है कि मलेच्छ आक्रमण के बाद गोविंद श्रेष्ठी (साधू) ने मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया और नई प्रतिमा स्थापित करवाई। 

गोविंद साधू, जो ईडर के एक प्रमुख व्यापारी थे, वे इडर के प्रसिद्ध श्रेष्ठी श्री वत्सराज संधवी के पुत्र थे. उनके घर में करोड़ों की लक्ष्मी का वास था. फिर भी वह सादगी से समय बिताते थे इसलिए वे गोविंद साधु के नाम से जाने जाते थे। उनका हृदय उदारता और प्रेम से भरा था। धार्मिक भावना का विकास हुआ था।

 

गोविंद साधु ईडर के राय श्री पुंजाजी के बहुत बड़े प्रशंसक थे। गोविंद सेठ तारंगा में अजितनाथ की मूर्ति तैयार करवाने के लिए आरासुर गए और अंबिकामाता की पूजा की, उन्हें प्रसन्न किया।

मूर्ति के लिए आरासुर से बैलगाड़ी में पत्थर तारंगा लाए, वहाँ गोविंद सेठ ने भगवान श्री अजितनाथ की नई प्रतिमा बनवाई और आचार्य श्री सोमसुंदरसूरी से इसकी अंजन शलाका करवाई। इस नई मूर्ति की प्रतिष्ठा संवत 1479 के आसपास की गई थी, जैसा कि मूर्ति पर लगे जीर्ण-शीर्ण शिलालेख से पता चलता है।

Taranga Tirth History: तारंगा तीर्थ का महत्व

तारंगा पर्वत जैन संस्कृति और भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण स्थल है। इस तीर्थ का नाम समय के साथ बदलता रहा है। इसे “तरंगक पर्वत,” “तरंगनाग,” “तारणगिरि,” और “तारणगढ़” के नामों से भी जाना जाता है। 

इस पवित्र स्थल की महिमा उसकी प्राकृतिक सुंदरता, ऐतिहासिक शिलालेखों, और धार्मिक महत्व में छिपी हुई है। तारंगा तीर्थ न केवल जैन धर्म का प्रतीक है, बल्कि यह कला, संस्कृति, और अध्यात्म का संगम भी है। 

वास्तुकला और मंदिर की विशेषताएँ: तारंगा जैन मंदिर स्थापत्य कला का एक अद्वितीय उदाहरण है। इस मंदिर का निर्माण सोलंकी नरेश कुमारपाल ने करवाया था और यह आज भी अपनी शिल्पकला और भव्यता के लिए प्रसिद्ध है। मंदिर में 230 फीट का एक विशाल आंगन है, जिसमें भगवान अजितनाथ का 142 फीट ऊँचा भव्य मंदिर स्थित है। मंदिर में

प्रवेश करते ही अंबिका माता और द्वारपाल की मूर्तियाँ देखने को मिलती हैं। मुख्य मंदिर के चारों ओर 64 पंक्तियाँ हैं, जिन पर सुंदर नक्काशी की गई है।

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